पिछले दिनों लखनऊ जाना हुआ. पत्नी और बच्चों के साथ. तीन दिनों का कार्यक्रम था. बरेली से बाजरिये ट्रेन लखनऊ तक. फिर लखनऊ में रिक्शे से गंतव्य तक. वैसे रिक्शे पर चलना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. बैल की तरह ही रिक्शे में लगभग जुता मनुष्य एकाधिक मनुष्य को ढोता हुआ. आदमी के ऊपर आदमी की सवारी.
लेकिन उस व्यक्ति के बारे में सोचिये जो अपना या किराये का रिक्शा ला रहा है और जैसे ही स्टेशन से बाहर निकलते हैं, हसरत भरी निगाहों से आपकी तरफ देखने लगता है. कई जोड़ी निगाहें उठ जाती हैं आशा-प्रत्याशा में. लोगों के पास गरीबी की, भूख की इफरात है. और कुछ मिल सके न मिल सके, गरीबी, भूख, गरीब और भूखे हर जगह मिल जायेंगे चारों तरफ फैली अव्यवस्था की तरह. लेकिन गरीब आखिर करे भी तो क्या. न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिनके पास पहले खेती थी. कुछ पुश्तों पहले काफी थी,फिर कुछ कम हुई, अगली पीढ़ी में और कम. जोत कम होती चली गयी और फिर किसान मजदूर में तब्दील हो गया.
लेकिन उस व्यक्ति के बारे में सोचिये जो अपना या किराये का रिक्शा ला रहा है और जैसे ही स्टेशन से बाहर निकलते हैं, हसरत भरी निगाहों से आपकी तरफ देखने लगता है. कई जोड़ी निगाहें उठ जाती हैं आशा-प्रत्याशा में. लोगों के पास गरीबी की, भूख की इफरात है. और कुछ मिल सके न मिल सके, गरीबी, भूख, गरीब और भूखे हर जगह मिल जायेंगे चारों तरफ फैली अव्यवस्था की तरह. लेकिन गरीब आखिर करे भी तो क्या. न जाने कितने ऐसे लोग हैं जिनके पास पहले खेती थी. कुछ पुश्तों पहले काफी थी,फिर कुछ कम हुई, अगली पीढ़ी में और कम. जोत कम होती चली गयी और फिर किसान मजदूर में तब्दील हो गया.
बात चल रही थी रिक्शे से चलने की. मैं इसे पसन्द नहीं करता, लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है, रिक्शे वाले को रोजगार की प्राप्ति और जो इसकी बड़ी बात है वह प्रदूषण से रहित होना भी.
खैर, गंतव्य पर पहुंचने के बाद घूमने निकला गया. बच्चों को जू दिखाना था, जो हजरतगंज चौराहे के पास ही था. जू के अन्दर कई जंगली जानवर रखे गये थे. जिन्हें देखकर बच्चे बहुत खुश हुये. अन्दर म्य़ूजियम में काफी रोचक तथ्यों, वस्तुओं और इतिहास से परिचय हुआ.
म्यूजियम के बाद इमामबाड़े की तरफ जाने का विचार बना. इसमें छोटा और बड़ा इमामबाड़ा शामिल था. इमामबाड़े में टिकट लेने के स्थान पर गाइड को दी जाने वाली राशि अंकित थी. और यह भी लिखा हुआ था कि इससे अधिक राशि गाइड को न दें. इसके नीचे मोबाइल नम्बर भी अंकित था, इस निर्देश के साथ कि अधिक जानकारी या समस्या की स्थिति में सम्पर्क करें. कहीं भी यह अंकित नहीं था कि गाइड करना अनिवार्य ही है. लेकिन इमामबाड़े में प्रवेश के साथ ही बुद्धि के झरोखे खुल गये. अन्दर जगह जगह पर बोर्ड लगे थे कि एक औरत और एक पुरुष के साथ गाइड अनिवार्य है. इमामबाड़े में प्रवेश के लिये जूते बाहर ही निकालना थे इसलिये प्रति जोड़ी एक/दो रुपये के हिसाब से जूता रखवाई दी. अन्दर स्थानीय गाइडों का काकस था, बिल्कुल वैसे ही जैसे बनारस या अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों-घाटों पर पण्डों का. चित्र यहां पर हैं. पहले इसमें एक बावड़ी के अन्दर गये. क्या खूब बनाई है बनाने वाले ने. बावड़ी के पीछे बैठे हुये लोग नीचे कुंये में भरे हुये पानी में आने वाले व्यक्तियों का प्रतिबिम्ब देख सकते हैं. इससे पहले आसफुद्दौला द्वारा बनाई गयी मस्जिद को बाहर से ही देख सके, क्योंकि शायद यह अब खुलती भी नहीं, और खुल भी जाती तो गैर-मुस्लिम का प्रवेश वर्जित है. इमामबाड़े में प्रवेश के समय कुछ बच्चे मिले, एक का फोटो लेना चाहा तो और भी इकट्ठे हो गये और फिर स्माइल प्लीज. मेडिकल कालेज की तरफ से आने पर चारों ओर काफी गन्दा है. कई वर्ष पहले जब गया था तो इतनी रौनक नहीं थी, लेकिन गन्दगी वैसी ही थी. इमामबाड़े की चारदीवारी के अन्दर कुछ युवा फ्लश, रमी के देसी वर्जन पर अपना हाथ आजमा रहे थे. बाहर से ही पता चल रहा था कि इमारत काफी बुलन्द रही होगी. और हमारे यहां के लोग भी इस बुलन्दी को और परवान चढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरतते. क्योंकि इमारत जितनी अधिक जर्जर होगी, उसी से तो यह तय होगा कि बुलन्दगी कितनी थी. प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्रेम को अमर करने में ऐतिहासिक इमारतों का बड़ा योगदान होता है. यदि ये इमारतें न होतीं तो प्रेमी कहां लिख पाते "तुम मेरी हो ...", "I Love You....", "फलां और फलां".
जारी....
म्यूजियम के बाद इमामबाड़े की तरफ जाने का विचार बना. इसमें छोटा और बड़ा इमामबाड़ा शामिल था. इमामबाड़े में टिकट लेने के स्थान पर गाइड को दी जाने वाली राशि अंकित थी. और यह भी लिखा हुआ था कि इससे अधिक राशि गाइड को न दें. इसके नीचे मोबाइल नम्बर भी अंकित था, इस निर्देश के साथ कि अधिक जानकारी या समस्या की स्थिति में सम्पर्क करें. कहीं भी यह अंकित नहीं था कि गाइड करना अनिवार्य ही है. लेकिन इमामबाड़े में प्रवेश के साथ ही बुद्धि के झरोखे खुल गये. अन्दर जगह जगह पर बोर्ड लगे थे कि एक औरत और एक पुरुष के साथ गाइड अनिवार्य है. इमामबाड़े में प्रवेश के लिये जूते बाहर ही निकालना थे इसलिये प्रति जोड़ी एक/दो रुपये के हिसाब से जूता रखवाई दी. अन्दर स्थानीय गाइडों का काकस था, बिल्कुल वैसे ही जैसे बनारस या अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों-घाटों पर पण्डों का. चित्र यहां पर हैं. पहले इसमें एक बावड़ी के अन्दर गये. क्या खूब बनाई है बनाने वाले ने. बावड़ी के पीछे बैठे हुये लोग नीचे कुंये में भरे हुये पानी में आने वाले व्यक्तियों का प्रतिबिम्ब देख सकते हैं. इससे पहले आसफुद्दौला द्वारा बनाई गयी मस्जिद को बाहर से ही देख सके, क्योंकि शायद यह अब खुलती भी नहीं, और खुल भी जाती तो गैर-मुस्लिम का प्रवेश वर्जित है. इमामबाड़े में प्रवेश के समय कुछ बच्चे मिले, एक का फोटो लेना चाहा तो और भी इकट्ठे हो गये और फिर स्माइल प्लीज. मेडिकल कालेज की तरफ से आने पर चारों ओर काफी गन्दा है. कई वर्ष पहले जब गया था तो इतनी रौनक नहीं थी, लेकिन गन्दगी वैसी ही थी. इमामबाड़े की चारदीवारी के अन्दर कुछ युवा फ्लश, रमी के देसी वर्जन पर अपना हाथ आजमा रहे थे. बाहर से ही पता चल रहा था कि इमारत काफी बुलन्द रही होगी. और हमारे यहां के लोग भी इस बुलन्दी को और परवान चढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरतते. क्योंकि इमारत जितनी अधिक जर्जर होगी, उसी से तो यह तय होगा कि बुलन्दगी कितनी थी. प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्रेम को अमर करने में ऐतिहासिक इमारतों का बड़ा योगदान होता है. यदि ये इमारतें न होतीं तो प्रेमी कहां लिख पाते "तुम मेरी हो ...", "I Love You....", "फलां और फलां".
जारी....
हम तो जब बावडी देखने गये थे तो वहा चमगादड उड रहे थे .वैसे भूलभूलैइया देखने वाली चीज़ है
जवाब देंहटाएंरिक्शे वाले को रोजगार की प्राप्ति और जो इसकी बड़ी बात है वह प्रदूषण से रहित होना भी.
जवाब देंहटाएंअपनी सीमाओंके बावज़ूद, अन्य वाहनों के मुकाबले मुझे रिक्शा पसन्द है और जहाँ तक सम्भव हो मैं इसका प्रयोग करता हूँ।
बच्चों को जू दिखाना था
हमारी लखनऊ यात्रा भी चिडियाघर/अजायबघर, इमामबाडा, रेज़िडेंसी आदि देखे बिना कभी पूरी नहीं होती थी।
इमामबाड़े की चारदीवारी के अन्दर ...
देश भर मेन, बचे-खुचे स्मारकों का यही हाल है। दिल्ली के कुछ स्मारकों में तो बच्चों/वृद्धों के साथ जाया ही नहीं जा सकता है। अगर गाइड लेना ज़रूरी है तो फिर उसका शुल्क टिकट में ही शुमार होना चाहिये। वैसे भी कुछेक रटी-रटाई बातों के अलावा वह बताता ही क्या है? हाँ बावडी मुझे भी पसन्द है।
रोचक और मजेदार संस्मरण , अपना और मेरे शहर का नाम रोशन करते रहिये
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुनील जी..
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ... खूब सैर करवाई आपने ... आभार !
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाएं !
महाराज, सभी फोटो बेहद दिलकश है ... बस थोड़ी महेनत और कर लीजिये ...हो सके तो के नीचे उसके बारे में थोड़ी जानकारी भी दे दीजिये तो इस सैर का मज़ा दुगना हो जाए !
जवाब देंहटाएंलखनऊ का अजायबघर भी देखने लायक है... इसे भी ज़रूर देखें
जवाब देंहटाएं@Mishra ji... jaroor doonga, ek do din me...
जवाब देंहटाएं@padm Singh Sahab... yadi zoo ke andar wale ki baat kar rahe hain to wo dekha hai...