अमूमन
रोज ही होता है. घर से निकलते ही शुरू हो जाता है. लोग बड़े दूरदर्शी हैं. बहुत आगे की सोचते हैं. सड़कें इतनी चौड़ी न हो जायें कि चोर-उचक्के आसानी से भाग सकें इसलिये सबसे पहले तो घर के आगे दी हुई खाली जमीन का अच्छा प्रयोग करते हैं. उसे लोहे के जाल से घेर देते हैं और फिर उसमें साग-सब्जी, फूल इत्यादि उगा लेते हैं. सदुपयोग. पैसा भी बचा, हरित क्रान्ति भी आ गयी. कुछ लोग और भी अच्छा काम करते हैं, गाडियां सड़क पर खड़ी नहीं करते इसलिये घर के आगे लोहे का जाल और फिर जाल में गाड़ी. चौड़ी
सड़क का फायदा क्या है आखिर. निकलना तो वहीं से है, जल्दी का काम शैतान का. इसलिये आराम से चलना चाहिये, आराम से तभी चला जा सकता है जब दो चार बन्दे आपके आगे हों और वे तभी होंगे जब सड़कें गलियों में, और गली करीना-कटरीना जैसी किसी हसीना की कमर की तरह बलखाती-लहराती और दुबली-पतली होगी. लोहे के इस जाल से कई लाभ होते हैं जैसे कि लोगों को रोजगार मिलना, लोहे के मिल वाले को, डीलर को, स्टाकिस्ट को, राज को, मजदूर को, मिस्त्री को और कभी नगर निगम को भी. जाल होंगे तभी तो हटाये जायेंगे. सड़कों
को और भी उपायों से इस काबिल किया जा सकता है कि उन पर चोर-उचक्के तेजी से न दौड़ सकें, जैसे कि सड़कों पर गड्ढे बनाना. गड्ढ़े बनाने के लिये सड़कों पर खम्भे लगवाये जा सकते हैं, स्थायी और अस्थायी दोनों ही तरह के. अस्थाई जल्दी गड्ढ़ा कर देते हैं और स्थाई थोड़ी देर से. धार्मिक-सांस्कृतिक और बाकी कई कार्यक्रम जिनके अन्त में "इक" आता हो, आसानी से सड़क पर निपटाये जा सकते हैं जिनमें खम्भे गाड़े जाते हैं और अन्त में जिनका सुफल गड्ढ़ों के रूप में सामने आता है.मकान
-दुकान के आगे नाले पर स्लैब डालकर फिर धीरे से उस पर पहले कच्चा फिर पक्का सा दिखाई देने वाला और अन्त में वाकई में पक्का निर्माण किया जा सकता है, जिससे कि सड़क की चौड़ाई को काबू में किया जा सकता है. गली और सड़कों पर ट्रैफिक की सनन-सनन को रोकने के लिये मुहल्ले-कालोनी के प्रवेश द्वारों पर बड़े-बड़े दरवाजे लगाये जाते हैं और धीरे-धीरे एक ही दरवाजे को आवागमन के लिये प्रयोग किया जाता है, इससे हमें प्राचीन काल में बनाये जाने वाले सुदृढ़ किलों में रहने का भी आनन्द मिल जाता है. जिस गली में हर पांच मकानों के बाद एक स्पीड ब्रेकर न हो, उस गली के निवासियों पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिये, यद्यपि पचास-साठ प्रतिशत जगह ऐसा नहीं होता फिर भी.बाजार
में भी दुकानदार भाईयों को इस तरह से दुकानें लगाना चाहिये कि आने-जाने वालों को गुजरते-गुजरते ही दुकान में रखे पूरे माल की जानकारी इत्मीनान से हो जाये. एक दुकान के आगे से गुजरते समय कम से कम पांच मिनट तो लगें ही, इस तरह से दुकानों का संयोजन करना चाहिये. फिर इस सब से भी तरक्की को बल मिलता है. गड्ढ़े हुये, सड़क नई बनेगी. नई किसे अच्छी न लगेगी. और अगर गाड़ी टूटी तो गाड़ी सुधरेगी. और सुधरेगी तो सुधारने वाले की आर्थिक तरक्की होगी. और फिर वह गुजरना भी क्या गुजरना जिसकी कोई निशानी न मिले. जितनी बार निकलो, गाड़ी पर उतनी ही बार निशान पड़े, जिससे कि उसे देखते ही पहचान जाये कि फलां जगह होकर आ रहे हैं, बिल्कुल उसी टैग की भांति जो आपके लगेज पर विदेश से आने पर लगा होता है.खैर
, यह तो कुछ हल्का-फुल्का मजाक था. असल बात यह है कि लोगों ने सड़कें तंग कर दी हैं, अपने हिसाब से बन्द कर दी हैं और जगह-जगह गड्ढ़े खुदवा दिये, स्पीड ब्रेकर बना दिये. एक गली तो ऐसी है, जहां हर तीसरे मकान के आगे स्पीड ब्रेकर बने हैं. शाहदाना चौराहे से श्याम गंज चौराहा पार करने में कभी कभी तो आधा घण्टा लग जाता है. श्याम गंज से बांस मण्डी की तरफ जाने पर सड़क के बिल्कुल बीच में रिक्शे, स्कूटर खड़े रहते हैं और यह डिवाइडर सड़क को दो पतली-पतली गलियों में बदल देता है. बरेली कालेज के पूर्वी द्वार से आगे बढ़ते ही सौन्दर्य बढ़ाने को डिवाइडर के बीच में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोहे के गोल जाल में बोगेन-विलिया (शायद?) लगाई गयी थी जो अतृत्प इच्छाओं की तरह जाल से बाहर फैल गयी है. इससे बहुत बचकर निकलना पड़ता है. रोज. कभी कभी बड़े उद्दण्ड चालक मिल जाते हैं, जो बड़ा इरीटेट करते हैं. अब यहां तो भैंस वाला ही बड़ा पड़ता है, लट्ठ जो है उसके पास.आटो का कोई भरोसा नहीं, कब दांये मुड़े या बांये. वैसे यहां चलने का सबसे अच्छा तरीका है कि न दांये देखो, न बांये, चलो मुंह उठाये. सामने वाला अपने आप बचेगा. आज से तकरीबन बीस साल पहले बरेली कालेज में पढ़ने जाता था, कुतुबखाने से होकर. तब और अब. भीड़ कम से कम बीस गुना ही बढ़ गयी होगी. भीड़ ही नियति है क्या और भीड़ की नियति क्या है.समझ नहीं आ रहा.,