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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

मुश्किलों भरा सफर

अमूम
रोज ही होता है. घर से निकलते ही शुरू हो जाता है. लोग बड़े दूरदर्शी हैं. बहुत आगे की सोचते हैं. सड़कें इतनी चौड़ी हो जायें कि चोर-उचक्के आसानी से भाग सकें इसलिये सबसे पहले तो घर के आगे दी हुई खाली जमीन का अच्छा प्रयोग करते हैं. उसे लोहे के जाल से घेर देते हैं और फिर उसमें साग-सब्जी, फूल इत्यादि उगा लेते हैं. सदुपयोग. पैसा भी बचा, हरित क्रान्ति भी गयी. कुछ लोग और भी अच्छा काम करते हैं, गाडियां सड़क पर खड़ी नहीं करते इसलिये घर के आगे लोहे का जाल और फिर जाल में गाड़ी.
चौड़ी
सड़क का फायदा क्या है आखिर. निकलना तो वहीं से है, जल्दी का काम शैतान का. इसलिये आराम से चलना चाहिये, आराम से तभी चला जा सकता है जब दो चार बन्दे आपके आगे हों और वे तभी होंगे जब सड़कें गलियों में, और गली करीना-कटरीना जैसी किसी हसीना की कमर की तरह बलखाती-लहराती और दुबली-पतली होगी. लोहे के इस जाल से कई लाभ होते हैं जैसे कि लोगों को रोजगार मिलना, लोहे के मिल वाले को, डीलर को, स्टाकिस्ट को, राज को, मजदूर को, मिस्त्री को और कभी नगर निगम को भी. जाल होंगे तभी तो हटाये जायेंगे.
सड़कों
को और भी उपायों से इस काबिल किया जा सकता है कि उन पर चोर-उचक्के तेजी से दौड़ सकें, जैसे कि सड़कों पर गड्ढे बनाना. गड्ढ़े बनाने के लिये सड़कों पर खम्भे लगवाये जा सकते हैं, स्थायी और अस्थायी दोनों ही तरह के. अस्थाई जल्दी गड्ढ़ा कर देते हैं और स्थाई थोड़ी देर से. धार्मिक-सांस्कृतिक और बाकी कई कार्यक्रम जिनके अन्त में "इक" आता हो, आसानी से सड़क पर निपटाये जा सकते हैं जिनमें खम्भे गाड़े जाते हैं और अन्त में जिनका सुफल गड्ढ़ों के रूप में सामने आता है.
मकान
-दुकान के आगे नाले पर स्लैब डालकर फिर धीरे से उस पर पहले कच्चा फिर पक्का सा दिखाई देने वाला और अन्त में वाकई में पक्का निर्माण किया जा सकता है, जिससे कि सड़क की चौड़ाई को काबू में किया जा सकता है. गली और सड़कों पर ट्रैफिक की सनन-सनन को रोकने के लिये मुहल्ले-कालोनी के प्रवेश द्वारों पर बड़े-बड़े दरवाजे लगाये जाते हैं और धीरे-धीरे एक ही दरवाजे को आवागमन के लिये प्रयोग किया जाता है, इससे हमें प्राचीन काल में बनाये जाने वाले सुदृढ़ किलों में रहने का भी आनन्द मिल जाता है. जिस गली में हर पांच मकानों के बाद एक स्पीड ब्रेकर हो, उस गली के निवासियों पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिये, यद्यपि पचास-साठ प्रतिशत जगह ऐसा नहीं होता फिर भी.
बाजार
में भी दुकानदार भाईयों को इस तरह से दुकानें लगाना चाहिये कि आने-जाने वालों को गुजरते-गुजरते ही दुकान में रखे पूरे माल की जानकारी इत्मीनान से हो जाये. एक दुकान के आगे से गुजरते समय कम से कम पांच मिनट तो लगें ही, इस तरह से दुकानों का संयोजन करना चाहिये. फिर इस सब से भी तरक्की को बल मिलता है. गड्ढ़े हुये, सड़क नई बनेगी. नई किसे अच्छी लगेगी. और अगर गाड़ी टूटी तो गाड़ी सुधरेगी. और सुधरेगी तो सुधारने वाले की आर्थिक तरक्की होगी. और फिर वह गुजरना भी क्या गुजरना जिसकी कोई निशानी मिले. जितनी बार निकलो, गाड़ी पर उतनी ही बार निशान पड़े, जिससे कि उसे देखते ही पहचान जाये कि फलां जगह होकर रहे हैं, बिल्कुल उसी टैग की भांति जो आपके लगेज पर विदेश से आने पर लगा होता है.
खैर
, यह तो कुछ हल्का-फुल्का मजाक था. असल बात यह है कि लोगों ने सड़कें तंग कर दी हैं, अपने हिसाब से बन्द कर दी हैं और जगह-जगह गड्ढ़े खुदवा दिये, स्पीड ब्रेकर बना दिये. एक गली तो ऐसी है, जहां हर तीसरे मकान के आगे स्पीड ब्रेकर बने हैं. शाहदाना चौराहे से श्याम गंज चौराहा पार करने में कभी कभी तो आधा घण्टा लग जाता है. श्याम गंज से बांस मण्डी की तरफ जाने पर सड़क के बिल्कुल बीच में रिक्शे, स्कूटर खड़े रहते हैं और यह डिवाइडर सड़क को दो पतली-पतली गलियों में बदल देता है. बरेली कालेज के पूर्वी द्वार से आगे बढ़ते ही सौन्दर्य बढ़ाने को डिवाइडर के बीच में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लोहे के गोल जाल में बोगेन-विलिया (शायद?) लगाई गयी थी जो अतृत्प इच्छाओं की तरह जाल से बाहर फैल गयी है. इससे बहुत बचकर निकलना पड़ता है. रोज. कभी कभी बड़े उद्दण्ड चालक मिल जाते हैं, जो बड़ा इरीटेट करते हैं. अब यहां तो भैंस वाला ही बड़ा पड़ता है, लट्ठ जो है उसके पास.आटो का कोई भरोसा नहीं, कब दांये मुड़े या बांये. वैसे यहां चलने का सबसे अच्छा तरीका है कि न दांये देखो, न बांये, चलो मुंह उठाये. सामने वाला अपने आप बचेगा. आज से तकरीबन बीस साल पहले बरेली कालेज में पढ़ने जाता था, कुतुबखाने से होकर. तब और अब. भीड़ कम से कम बीस गुना ही बढ़ गयी होगी. भीड़ ही नियति है क्या और भीड़ की नियति क्या है.समझ नहीं आ रहा.,

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

सवा लाख डालर

सवा लाख लेकर चले, डालर अपने संग
पकड़े पर कहने लगे, करते हमको तंग
करते हमको तंग, न जानूं नियम-कायदे
अब जाकर मालूम हुये, पढ़ने के फायदे   
कह ----- कविराय, तजो अब सभी बहाने  
उगलो सच्ची बात, छोड़ कर राग पुराने      

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

लखनऊ यात्रा - गाइड माहात्म्य - भाग दो

गाइड साहब ने शुरूआत की इमामबाड़े में प्रवेश के साथ और इमाम साहब के इस सिंहासन से परिचय कराया. इसके बाद इमामबाड़े के अन्दर कई प्रतिकृतियों के बारे में बताया. आगे मध्य में एक रेलिंग से घिरी हुई थोड़ी जगह थी, जिसके आगे आसफ-उद-दौला का मुकुट रखा था. यह बताया कि यह नकली कब्र है, असली नीचे है.

सोमवार, 31 जनवरी 2011

लखनऊ यात्रा - गाइड माहात्म्य.

पिछली पोस्ट में गाइड के बारे में लिख रहा था. पहले ही बता चुका हूं कि बाहर ASI ने कहीं भी नहीं लिखा है कि गाइड अनिवार्य है, लेकिन अन्दर जगह जगह पर टंगे बोर्ड कुछ और ही कहानी बयान कर रहे थे.  इस चित्र को देखिये, जहां लिखा है कि भूल-भुलैया में एक स्त्री और एक पुरुष के साथ एक गाइड अनिवार्य है.

शनिवार, 29 जनवरी 2011

मेरी लखनऊ यात्रा

पिछले दिनों लखनऊ जाना हुआ. पत्नी और बच्चों के साथ. तीन दिनों का कार्यक्रम था. बरेली से बाजरिये ट्रेन लखनऊ तक. फिर लखनऊ में रिक्शे से गंतव्य तक. वैसे रिक्शे पर चलना मुझे  बिल्कुल अच्छा नहीं लगता. बैल की तरह ही रिक्शे में लगभग जुता मनुष्य एकाधिक मनुष्य को ढोता हुआ. आदमी के ऊपर आदमी की सवारी.

रविवार, 16 जनवरी 2011

आज से पेट्रोल और मंहगा हो गया..

सुबह-सुबह अखबारों में हेडलाइन थी कि पेट्रोल के दामों में वृद्धि. जोर का झटका जोर से ही लगा. फिर ढ़ाई रुपये प्रति लीटर मंहगा हो गया पेट्रोल. लेकिन मैंनू की? क्यों, भैय्ये, मुझे फर्क क्यों नहीं पड़ा. अरे पहले भी तीन सौ रुपये का खर्च करता था, अब भी तीन सौ रुपये का ही पेट्रोल खर्च करूंगा. मजे की बात यह है कि पेट्रोल की इस मूल्य वृद्धि के नाम पर हर चीज मंहगी हो जायेगी. आटो वाला, चाहे वह गैस से ही आटो क्यों न चलाता हो, बेचारगी जताता हुया धीरे से कम से कम एक रुपया सवारी किराया बढ़ा देगा. और आटो वाला ही क्यों हर चीज, दाल-चीनी-आटा-सब्जी सब के दाम बढ़ जाते हैं. डी०ए० भी बढ़ता है. मैं उनके बारे में सोचता हूं जो हर रोज मुझे अड्डों पर दिखाई देते हैं और उसमें भी दस बजे के आस-पास. दास-प्रथा की तरह बिकते हुये लोग. टाइम अधिक हो गया, इसलिये काम के घण्टे कम और परिणामत: श्रम का मूल्य भी कम. कैसे काम चलता होगा इन लोगों का. निरुत्तर हो जाता हूं, रोज.